वनस्पति विज्ञान

 

वनस्पति विज्ञान

वनस्पतिविज्ञान (Botany) या पादपविज्ञान (Plant Science), जिसमें पादपों का अध्ययन होता है।

पादप विज्ञान की शाखाएँ

विस्तृत जानकारी के लिये पादप विज्ञान की शाखाएँ देखें।पादपविज्ञान के समुचित अध्ययन के लिये इसे अनेक शाखाओं में विभक्त किया गया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं :

  • 1. पादप आकारिकी (Plant Morphology) - इसके अंतर्गत पादप में आकार, बनावट इत्यादि का अध्ययन होता है। आकारिकी आंतर हो सकती है या बाह्य।
  • 2. कोशिकानुवंशिकी (Cytogenetics) - इसके अंतर्गत कोशिका के अंदर की सभी चीजों का, कोशिका तथा केंद्रक (nucleus) के विभाजन की विधियों का तथा पौधे किस प्रकार अपने जैसे गुणोंवाली नई पीढ़ियों को जन्म देते हैं इत्यादि का, अध्ययन होता है।
  • 3. पादप परिस्थितिकी (Plant Ecology) - इसके अंतर्गत पादपों और उनके वातावरण के आपसी संबंध का अध्ययन होता है। इसमें पौधों के सामाजिक जीवन, भौगोलिक विस्तार तथा अन्य मिलती जुलती चीजों का भी अध्ययन किया जाता है।
  • 4. पादप शरीर-क्रिया-विज्ञान (Plant Physiology) - इसके अंतर्गत जीवनक्रियाओं (life processes) का बृहत् रूप से अध्ययन होता है।
  • 5. भ्रूणविज्ञान (Embryology) - इसके अंतर्गत लैंगिक जनन की विधि में जब से युग्मक बनते हैं और गर्भाधान के पश्चात् भ्रूण का पूरा विस्तार होता है तब तक की दशाओं का अध्ययन किया जाता है।
  • 6. विकास (Evolution) - इसके अंतर्गत पृथ्वी पर नाना प्रकार के प्राणी या पादप किस तरह और कब पहले पहल पैदा हुए होंगे और किन अन्य जीवों से उनकी उत्पत्ति का संबंध है, इसका अध्ययन होता है।
  • 7. आर्थिक पादपविज्ञान - इसके अंतर्गत पौधों की उपयोगिता के संबंध में अध्ययन होता है।
  • 8. पादपाश्मविज्ञान (Palaeobotany) - इसके अंतर्गत हम उन पौधों का अध्ययन करते हैं जो इस पृथ्वी पर हजारों, लाखों या करोड़ों वर्ष पूर्व उगते थे पर अब नहीं उगते। उनके अवशेष ही अब चट्टानों या पृथ्वी स्तरों में दबे यत्र तत्र पाए जाते हैं।
  • 9. वर्गीकरण या क्रमबद्ध पादपविज्ञान (Taxonomy or Systematic botany) - इसके अंतर्गत पौधों के वर्गीकरण का अध्ययन करते हैं। पादप संघ, वर्ग, गण, कुल इत्यादि में विभाजित किए जाते हैं।

    18वीं या 19वीं शताब्दी से ही अंग्रेज या अन्य यूरोपियन वनस्पतिज्ञ भारत में आने लगे और यहाँ के पौधों का वर्णन किया और उनके नमूने अपने देश ले गए। डाक्टर जे. डी. हूकर ने लगभग 1860 ई. में भारत के बहुत से पौधों का वर्णन अपने आठ भागों में लिखी "फ्लोरा ऑव ब्रिटिश इंडिया" नामक पुस्तक में किया है।

    पादप वर्गीकरण

    डार्विन (Darwin) के विचारों के प्रकाश में आने के पश्चात् यह वर्गीकरण पौधों की उत्पत्ति तथा आपसी संबंधों पर आधारित होने लगा। ऐसे वर्गीकरण को 'प्राकृतिक पद्धति' (Natural System) कहते हैं और जो वर्गीकरण इस दृष्टिकोण को नहीं ध्यान में रखते उसे 'कृत्रिम पद्धति' (Artificial System) कहते हैं।

    अपुष्पी या क्रिप्टोगैम (Cryptogam) उन पादपों (व्यापक अर्थ में, साधारण अर्थ में नहीं) को कहते हैं जिनमें प्रजनन बीजाणुओं (spores) की सहायता से होता है। ग्रीक भाषा में 'क्रिप्टोज' का अर्थ 'गुप्त' तथा 'गैमीन' का अर्थ 'विवाह करना' है। अर्थात् क्रिप्टोगैम पादपों में बीज उत्पन्न नहीं होता।

    थैलोफाइटा, (Thallophyta)थैलोफाइटा (Thallophyta) पहले पादप जगत के एक प्रभाग (division) के रूप में मान्य था किन्तु अब वह वर्गीकरण निष्प्रभावी हो गया है। थैलोफाइटा के अन्तर्गत कवक, शैवाल और लाइकेन आते थे। कभी-कभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और मिक्सोमाइकोटा (Myxomycota) को भी इसमें शामिल कर लिया जाता था। इनके जनन तंत्र अस्पष्ट होते हैं। इसलिये इन्हें क्रिप्टोगैम (cryptogamae) भी कहते हैं।

    शैवाल या ऐलजी (Algae)शैवाल (Algae /एल्गी/एल्जी; एकवचन:एल्गै) सरल सजीव हैं। अधिकांश शैवाल पौधों के समान सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वंय बनाते हैं अर्थात् स्वपोषी होते हैं। ये एक कोशिकीय से लेकर बहु-कोशिकीय अनेक रूपों में हो सकते हैं, परन्तु पौधों के समान इसमें जड़, पत्तियां इत्यादि रचनाएं नहीं पाई जाती हैं। ये नम भूमि, अलवणीय एवं लवणीय जल, वृक्षों की छाल, नम दीवारों पर हरी, भूरी या कुछ काली परतों के रूप में मिलते हैं।

    कवक या फंजाइ (Fungi) औरफफूंद या कवक एक प्रकार के पौधे हैं जो अपना भोजन सड़े गले म्रृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ये संसार के प्रारंभ से ही जगत में उपस्थित हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनका संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है। इनके द्वारा जगत में से कचरा हटा दिया जाता है।

    लाइकेन (Lichen)लाइकेन (Lichen) निम्न श्रेणी की ऐसी छोटी वनस्पतियों का एक समूह है, जो विभिन्न प्रकार के आधारों पर उगे हुए पाए जाते हैं। इन आधारों में वृक्षों की पत्तियाँ एवं छाल, प्राचीन दीवारें, भूतल, चट्टान और शिलाएँ मुख्य हैं। यद्यपि ये अधिकतर धवल रंग के होते हैं, तथापि लाल, नारंगी, बैंगनी, नीले एवं भूरे तथा अन्य चित्ताकर्षक रंगों के लाइकेन भी पाए जाते हैं। इनकी वृद्धि की गति मंद होती है एंव इनके आकार और बनावट में भी पर्याप्त भिन्नता रहती है।

    ब्रायोफाइटा (Bryophyta) वनस्पति जगत का एक बड़ा वर्ग है। इसके अन्तर्गत वे सभी पौधें आते हैं जिनमें वास्तविक संवहन ऊतक (vascular tissue) नहीं होते, जैसे मोसेस (mosses), हॉर्नवर्ट (hornworts) और लिवरवर्ट (liverworts) आदि।

    टेरिडोफाइटा (Pteridophyta) वनस्पतिज्ञों द्वारा किए गए पौधों के कई विभागों में से एक विभाग है। यह एक ओर पुष्प और बीज उत्पादक ब्राइटोफाइटा से और दूसरी ओर पुष्प और बीज न उत्पन्न करनेवाले जल के पौधों, "मॉसों" (mosses), से भिन्न होता है, तथापि इन दोनों वर्गों के पौधों के गुणों से कुछ कुछ गुणों में समानता रखता है। स्थल पर उत्पन्न होनेवाले पौधों को स्परमाटो-फाइटा (spermatophyta) और केवल जल में उत्पन्न होनेवाले पौधों को थैलोफाइटा (Thallophyta) कहते हैं।

    पुष्पोद्भिद या फेनेरोगैम (Phanerogam) वे पादप हैं जो बीज पैदा करते हैं।

    पुष्पोद्भिद में दो बड़े वर्ग हैं

  • अनावृतबीजी या जिम्नोस्पर्म (Gymnosperm) और
  • आवृतबीजी या ऐंजियोस्पर्म (Angiosperm)
  • अनावृत्तबीजी Gymnosperms उन पौधों को इसमें रखते हैं, जिनके बीज में आवरण नहीं पाया जाता है। ये पौधे मुख्य रुप से सदाबहार वनों एवं पहाड़ी क्षेत्रों में पाये जाते हैं।

    आवृतबीजी Angiosperm उन पौधों को रखा जाता है, जिनके बीजों में आवरण पाया जाता है। इस समुदाय के पौधों को पुष्पीय पादप भी कहते हैं क्योंकि इनमें पूर्ण विकसित पुष्प पाये जाते हैं। अब तक एंजियोपर्म की लगभग 2 लाख 50 हजार जातियों को खोजा जा चुका है। ये पृथ्वी के सबसे अधिक विकसित पादप हैं।

    पादप आकारिकी

    आकारिकी अथवा आकार विज्ञान (अंग्रेजी में मॉरफ़ॉलाजी) शब्द वनस्पति विज्ञान तथा जंतु विज्ञान के अंतर्गत उन सभी अध्ययनों के लिए प्रयुक्त होता है। जिनका मुख्य विषय जीवपिंड का आकार और रचना है। पादप आकारिकी में पादपों के आकार और रचना तथा उनके अंगों (मूल, स्तंभ, पत्ती, फूल आदि) एवं इन अंगों के परस्पर संबंध और संपूर्ण पादप से उसके अंगों के संबंध का विचार किया जाता है।

    जड़ -

    पृथ्वी की ओर नीचे की तरफ बढ़ती है। यह मूल रूप से दो प्रकार की होती है : एक तो द्विबीजपत्री पौधों में प्राथमिक जड़ बढ़कर मूसला जड़ बनाती है तथा दूसरी प्रकार की वह होती हैं, जिसमें प्राथमिक जड़ मर जाती है। और तने के निचले भाग से जड़ें निकल आती हैं। एकबीजपत्रों में इसी प्रकार की जड़ें होती हैं। इन्हें रेशेदार जड़ कहते हैं। जड़ के नीचे की नोक एक प्रकार के ऊतक से ढकी रहती है, जिसे जड़ की टोपी कहते हैं। इसके ऊपर के भाग को बढ़नेवाला भाग कहते हैं। इस हिस्से में कोशिकाविभाजन बहुत तेजी से चलता रहता है। इसके ऊपर के भाग को जल इत्यादि ग्रहण करने का भाग कहते हैं और इसमें मूल रोम (root hair) निकले होते हैं। ये रोम असंख्य होते हैं, जो बराबर नष्ट होते और नए बनते रहते हैं। इनमें कोशिकाएँ होती है तथा यह मिट्टी के छोटे छोटे कणों के किनारे से जल और लवण अपने अंदर सोख लेती हैं।

    तना-

    या स्तंभ बीज के कोलियाप्टाइल भाग से जन्म पाता है और पृथ्वी के ऊपर सीधा बढ़ता है। तनों में पर्वसंधि (node) या गाँठ तथा पोरी (internode) होते हैं। पर्वसंधि पर से नई शाखाएँ पुष्पगुच्छ या पत्तियाँ निकलती हैं। इन संधियों पर तने के ऊपरी भाग पर कलिकाएँ भी होती हैं। पौधे के स्वरूप के हिसाब से तने हरे, मुलायम या कड़े तथा मोटे होते हैं। इनके कई प्रकार के परिवर्तित रूप भी होते हैं। कुछ पृथ्वी के नीचे बढ़ते हैं, जो भोजन इकट्ठा कर रखते हैं। प्रतिकूल समय में ये प्रसुप्त (dormant) रहते हैं तथा जनन का कार्य करते हैं, जैसे कंद (आलू) में, प्रकंद (अदरक, बंडा तथा सूरन) में, शल्ककंद (प्याज और लहसुन) में इत्यादि। इनके अतिरिक्त पृथ्वी की सतह पर चलनेवाली ऊपरी भूस्तारी (runner) और अंत:भूस्तारी (sucker) होती हैं, जैसे दब, या घास और पोदीना में। कुछ भाग कभी कभी काँटा बन जाते हैं। नागफन और कोकोलोबा में स्तंभ चपटा और हरा हो जाता है, जो अपने शरीर में काफी मात्रा में जल रखता है।

    पत्तियाँ-

    तने या शाखा से निकलती हैं। ये हरे रंग की तथा चपटे किस्म की, कई आकार की होती है। इनके ऊपर तथा नीचे की सतह पर हजारों छिद्र होते हैं, जिन्हें रध्रं (stomata) कहते हैं। इनसे होकर पत्ती से जल बाहर वायुमंडल में निकलता रहता है तथा बाहर से कार्बनडाइऑक्साइड अंदर घुसता है। इससे तथा जल से मिलकर पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश की सहायता से पौधे का भोजननिर्माण होता है।

    कुछ पत्तियाँ अवृंत (sessile) होती हैं, जिनमें डंठल नहीं होता, जैसे मदार में तथा कुछ डंठल सहित सवृंत होती हैं।

    पत्ती के डंठल के पास कुछ पौधों में नुकीले, चौड़े या अन्य प्रकार के अंग होते हैं, जिन्हें अनुपर्ण (stipula) कहते हैं, जैसे गुड़हल, कदम, मटर इत्यादि में। अलग अलग रूपवाले अनुपर्ण को विभिन्न नाम दिए गए हैं। पत्तियों के भीतर कई प्रकार से नाड़ियाँ फैली होती हैं। इस को शिराविन्यास (venation) कहते हैं।

    द्विबीजपत्री में विन्यास जाल बनाता है और एकबीजी पत्री के पत्तियों में विन्यास सीधा समांतर निकलता है। पत्ती का वर्गीकरण उसके ऊपर के भाग की बनावट, या कटाव, पर भी होता है। अगर फलक (lamina) का कटाव इतना गहरा हो कि मध्य शिरा सींक की तरह हो जाय और प्रत्येक कटा भाग पत्ती की तरह स्वयं लगने लगे, तो इस छोटे भाग को पर्णक कहते हैं और पूरी पत्ती को संयुक्तपर्ण (compound leaf) कहते हैं।

    संयुक्तपूर्ण पिच्छाकार (pinnate), या हस्ताकार (palmate) रूप के होते हैं, जैसे क्रमश: नीम या ताड़ में। पत्तियों का रूपांतर भी बहुत से पौधों में पाया जाता है, जैसे नागफनी में काँटा जैसा, घटपर्णी (pitcher) में ढक्कनदार गिलास जैसा, और ब्लैडरवर्ट में छोटे गुब्बारे जैसा।

    कांटे से पौधे अपनी रक्षा चरनेवाले जानवरों से करते हैं तथा घटपर्णी और ब्लैडरवर्ट के रूपांतरित भाग में कीड़े मकोड़ों को बंदकर उन्हें ये पौधे हजम कर जाते हैं।

    एक ही पौधे में दो या अधिक प्रकार की पत्तियाँ अगर पाई जाएँ, तो इस क्रिया को हेटेरोफिली (Heterophylly) कहते हैं।

    फूल-

    पौधों में जनन के लिये होते हैं।

    पौधों में फूल अकेले या समूह में किसी स्थान पर जिस क्रम से निकलते हैं उसे पुष्पक्रम (inflorescence) कहते हैं।

    जिस मोटे, चपटे स्थान से पुष्पदल निकलते हैं, उसे पुष्पासन (thalamus) कहते हैं।

    बाहरी हरे रंग की पंखुड़ी के दल को ब्राह्मदलपुंज (calyx) कहते हैं।

    इसकी प्रत्येक पंखुड़ी को बाह्यदल (sepal) कहते हैं। इस के ऊपर रंग बिरंगी पंखुड़ियों से दलपुंज (corolla) बनता है।

    दलपुंज के अनेक रूप होते हैं, जैसे गुलाब, कैमोमिला, तुलसी, मटर इत्यादि में।

    पंखुड़ियाँ पुष्पासन पर जिस प्रकार लगी रहती हैं, उसे पुष्पदल विन्यास या एस्टिवेशन (estivation) कहते हैं।

    पुमंग (androecium) पुष्प का नर भाग है, जिसें पुंकेसर बनते हैं। पुंमग में तंतु होते हैं, जिनके ऊपर परागकोष होते हैं। इन कोणों में चारों कोने पर परागकण भरे रहते हैं। परागकण की रूपरेखा अनेक प्रकर की होती है।

    स्त्री केसर या अंडप (carpel) पुष्प के मध्यभाग में होता है। इसके तीन मुख्य भाग हैं : नीचे चौड़ा अंडाशय, उसके ऊपर पतली वर्तिका (style) और सबसे ऊपर टोपी जैसा वर्तिकाग्र (stigma)। वर्तिकाग्र पर पुंकेसर आकर चिपक जाता है, वर्तिका से नर युग्मक की परागनलिका बढ़ती हुई अंडाशय में पहुँच जाती है, जहाँ नर और स्त्री युग्मक मिल जाते हैं और धीरे धीरे भ्रूण (embryo) बनता है। अंडाशय बढ़कर फल बनाता है तथा बीजाणु बीज बनाते हैं।

    परागकण की परागकोष से वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं।

    अगर पराग उसी फूल के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे स्वपरागण (Self-pollination) कहते हैं और अगर अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे परपरागण (Cross-pollination) कहेंगे।

    परपरागण अगर कीड़े मकोड़े, तितलियों या मधुमक्खियों द्वारा हो, तो इसे कीटपरागण (Entomophily) कहते हैं।

    अगर परपरागण वायु की गति के कारण से हो, तो उसे वायुपरागण (Anemophily) कहते हैं, अगर जल द्वारा हो तो इसे जलपरागण (Hydrophily) और अगर जंतु से हो, तो इसे प्राणिपरागण (Zoophily) कहते हैं।

    गर्भाधान या निषेचन के उपरांत फल और बीज बनते हैं, इसकी रीतियाँ एकबीजपत्री तथा द्विदलपत्री में अलग अलग होती हैं। बीज जिस स्थान पर जुड़ा होता है उसे हाइलम (Hilum) कहते हैं।

    बीज एक चोल से ढँका रहता है। बीज के भीतर दाल के बीच में भ्रूण रहता है जो भ्रूणपोष (Endosperm) से ढँका रहता है।

    फल -

    तीन प्रकार के होते हैं : एकल (simple), पुंज (aggregate) और संग्रथित (multiple or composite)।

    एकल फल एक ही फूल के अंडाशय से विकसित होकर जनता है और यह कई प्रकार का होता है, जैसे (1) शिंब (legume), उदाहरण मटर, (2) फॉलिकल, जैसे चंपा, (3) सिलिकुआ, जैसे सरसों, (4) संपुटी, जैसे मदार या कपास, (5) कैरियाप्सिस, जैसे धान या गेहूँ, (6) एकीन जैसे, क्लीमेटिस, (7) ड्रुप, जैसे आय, (8) बेरी, जैसे टमाटर इत्यादि।

    पुंज फल एक ही फूल से बनता है, लेकिन कई स्त्रीकेसर (pistil) से मिलकर, जैसा कि शरीफा में। संग्रथित फल कई फूलों से बनता है, जैसे सोरोसिस (कटहल) या साइकोनस (अंजीर) में।

    पादप उत्तक:

    तो उत्तक किसी जीव विशेष में मौजूद कोशिकाओं के समूह को कहा जाता है, जिनकी उत्पत्ति, सरंचना एवं कार्य प्रणाली एक समान हो, उन्हें उत्तक या Tissue कहा जाता है| कई बार उत्तको के आकार असमान हो सकते है किन्तु कार्य करने का तरीका हमेशा एक जैसा होगा| उत्तको के अध्ययन करने के उत्तक विज्ञानं या Histology कहा जाता है|

    पादप उत्तक को मुख्य रूप से दो भागो में विभक्त किया गया है

    1-विभाज्योतकी उत्तक:

    पौधे के वृद्धि क्षेत्र को या बढ़ते हुए भाग को विभाज्योतक कहा जाता है, इनमे उत्पन्न होने वाली कोशिकाए पौधे की अधिकाधिक वृद्धि करने में सहायता करती है एवं विभिन्न प्रकार के अंगो का निर्माण करती है| पौधे के बढने की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है|

    विभाज्योतिकी उत्तको के कुछ विशेष प्रकार के लक्षण इस प्रकार है:

    – विभाज्योतिकी उत्तक आकार में बहुभुजाकार या अण्डाकार होते है एवं इनकी भित्तिया एकसार एवं बहुत पतली होती है|

    – इन उत्तको मे अन्त्र्कोश्कीय जगह का काफी अभाव होता है एवं केन्द्रक का आकार बड़ा, रसघनी सूक्ष्म एवं जीवद्रव्य सघन मात्रा में पाया जाता है|

    विभाज्योतिकी उत्तक के प्रमुख प्रकार इस प्रकार है:

    शीर्षस्थ विभज्योतक: जिस प्रकार इसके नाम से स्पष्ट हो रहा है, यह उत्तक पादप के जडो या तने के शीर्ष पर पाया जाता है| इन्ही को पौधे की लम्बाई के लिए जिम्मेवार माना जाता है|

    पार्श्व विभज्योतक: इस प्रकार के उत्तको को पौधे के मोटाई एवं तने की मजबूती का श्रेय प्रदान किया गया है, ये आपस में विभाजित होकर पौधे के तने एवं जड़ो में वृद्धि प्रदान करते है|

    अन्तरवेशी विभज्योतक: ये उत्तक भी शीर्षस्थ उत्तक के समान पौधे की लम्बाई में वृद्धि करने के लिए जाने जाते है, किन्तु मध्य में स्थायी उत्तक के आ जाने से ये उनके (शीर्षस्थ उत्तक) अवशेष के रूप में जाने जाते है| ये घास जैसे पौधे के लिए अत्यंत लाभकारी है क्योकि उनके ऊपर के भाग को अनेक शाकाहारी पशु आदि खा जाते है, अन्तरवेशी विभज्योतक के कारण उन्हें शीघ्रता से बढने में सहायता मिलती है|

    स्थायी उत्तक

    परिपक्व कोशिकाओ से निर्मित इसे उत्तक जो अपनी विभाजन की क्षमता पूर्ण रूप से खो चुके है, इस उत्तको को स्थायी उत्तक कहा जाता है| कई बार उत्तक या कोशिकाए विभिन्न कार्य-कलापों को पूरा करने हेतु विभेदित हो जाते है| इनमे संयोजित कोशिकाए मृत या सजीव दोनों में से कोई भी हो सकती है|

    स्थायी उत्तको के प्रकार इस प्रकार है:

    सरल उत्तक:

    इस उत्तक का निर्माण एक प्रकार के कोशिका के समावेश से बना होता है, अर्थात इसके निर्माण में जटिलता नहीं होती, इसलिए इसे सरल उत्तक कहा जाता है|

    जटिल उत्तक:

    स्थायो उत्तको में एक या एक से अधिक कोशिकाओं का समावेश हो तो इसे जटिल उत्तक का संयोजन कहा जाता है|

    जाइलम

    यह एक प्रकार का संवहन उत्क है जिसका प्रमुख कार्य पौधे को दृढ़ता प्रदान करना एवं खनिज एवं लवणों को पहुचाना है| इसके कई बार काष्ठ कहकर भी पुकारा जाता है| किसी पौधे की आयु का पता लगाने के लिए जाइलम के वलय को देखकर एवं गिनकर उसका अनुमान लगाया जाता है| इस प्रक्रिया को डेन्ड्रोक्रोनोलोजी कहा जाता है|

    फ्लोएम:

    यह भी एक प्रकार का संवहन उत्तक है, जिसका कार्य पौधे की पत्तियों द्वारा निर्मित भोज्य पदार्थों को पौधे के अन्य प्रमुख भागों तक पहुचाना है|

    पादप हार्मोन

    पादप हार्मोन एक प्रकार के रसायन होते है जो पौधे के विकास एवं वृद्धि को प्रभावित करते है, एवं जिनके अभाव से पौधे के समान्य रूप से वृद्धि नहीं हो पाती| पादप हॉर्मोन पौधे के अंदर ही उत्पन्न होकर उसके विभिन्न भागों को प्रभावित करते है, ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर पौधे की कोशिकाओं का विनियमन करते है|

    मुख्य रूप से पौधे में 5 प्रकार के हॉर्मोन पाए जाते है, जिनका विस्तरित वर्णन इस प्रकार है:-

    1 ऑक्सिन हार्मोन यह हार्मोन मुख्य रूप से पौधे की वृद्धि को प्रभावित करता है, जिसकी खोज महान वैज्ञानिक डार्विन ने १८८० ई में की थी| जिन पौधों में यह हार्मोन उपयुक्त मात्रा में पाया जाता है उनमे पौधे के शीर्ष का विकास प्रमुख हो जाता है एवं पार्श्व कलिकाए बढना बंद हो जाती है या उन पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है| यह हॉर्मोन खरपतवार को नष्ट करने में सहायता करता है, जिससे पौधे का विकास तीव्रता से हो सके| यह पत्तियों के विल्न्ग्न को रोकता है एवं फसलों को शीघ्र नष्ट होने एवं गिरने से बचाता है|

    इसके कारण उत्तम प्रकार के फल भी प्राप्त किये जा सकते है, इसी कारण इस हॉर्मोन को प्रथम स्थान दिया गया है, जिसका पौधे में मौजूद होना अनिवार्य है, एवं जिन पौधो में इसकी कमी होती है, उसकी वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है तथा वह पौधा अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता|

    2 जिबरेलिन हार्मोन यह हार्मोन प्रसुप्त बीजो में प्रस्फुटन करके उन्हें अंकुरित होने में सहायता करता है, इसके साथ ही यह फूलो के निर्माण एवं विकास में सहायक होता है| इस हॉर्मोन की खोज १९२६ ई. में कुरोसावा ने की थी जो की एक जापानी वैज्ञानिक थे| जिन पौधो में इसका अभाव रहता है, उनपे इस हॉर्मोन का छिडकाव करके प्रचुर मात्रा में फूल एवं फलो का उत्पादन किया जा सकता है| इसके अभाव से पौधे की वृद्धि तो हो जाती है किन्तु न फल लगते है न ही फूल|

    3 साइटोकाइनिन हार्मोन यह हार्मोन औक्सिन्स के साथ मिलकर प्राकृतिक रूप से कार्य करता है| यह कोशिका के विकास करने एवं उसके विभाजन में अत्यंत सहायक है| इस हॉर्मोन की खोज १९५५ ई. में मिलर द्वारा की गई थी किन्तु बाद में इसको यह नाम लिथाम द्वारा दिया गया| यह पौधे को कमजोर होने से रोकता है एबम आवश्यक घटकों को उपलब्ध करवाता है| इसके साथ ही यह हॉर्मोन प्रोटीन एवं RNA का निर्माण करने में भी सहायता करता है|

    4 एबसिसिक एसिड: ABA नाम का यह हार्मोन पौधे का वृधिरोधक हॉर्मोन माना जाता है, जिसकी खोज सर्वप्रथम कॉनर्स व् एडिकोट ने १९६१-६५ ई. में की थी किन्तु वेयरिंग नामक वैज्ञानिक से अच्छे से खोज की| यह बीजो की सुप्त अवस्था में रखता है, पौधे का यह हॉर्मोन फूलों के निर्माण में एक बाधक माना जाता है, एवं यह पत्तियों विल्न्गन में भी सहायक होता है|

    5 एथिलीन हार्मोन एकमात्र गैसीय अवस्था में पाया जाने वाला यह हार्मोन मादा फूलो की संख्या में वृद्धि करने में सहायक होता है| यह फलो को प्राक्रतिक रूप से पकाने में अहम् भूमिका अदा करता है| इस हॉर्मोन की खोज १९६२ ई. में बर्ग ने की थी एवं इसके स्वरूप का प्रतिपादन किया|

    Previous Post Next Post